गोरखालैंड समस्या और विभिन्न आंदोलन (Gorkhaland Issue and Movements in hindi)
पश्चिम बंगाल राज्य में पड़ने वाला क्षेत्र दार्जिलिंग अपने जातियता और संस्कृति रूप से बंगाल के अन्य स्थानों से भिन्न है, किन्तु इस भिन्नता के बावजूद भी यह पश्चिम बंगाल का ही एक क्षेत्र बना हुआ है. हालाँकि भारत की आज़ादी के बाद से ही इस पहाड़ क्षेत्र के लोगों ने अपने लिए अलग राज्य की मांग की है. समय समय पर इस मांग को लेकर कई आन्दोलन भी हुए हैं. इसकी सभी घटनाओ का वर्णन नीचे किया जा रहा है.
गोरखालैंड समस्या और विभिन्न आंदोलन
Gorkhaland Issue and Various Movements in hindi
गोरखालैंड का इतिहास (Gorkhaland History)
भारत की स्वतंत्रता के बाद यहाँ पर जातिगत बहुलता और संस्कृति के आधार पर कई राज्यों का गठन हुआ. इस समय दार्जिलिंग को पश्चिम बंगाल से मिला दिया गया और सांस्कृतिक भिन्नता के बावजूद गोरखालैंड नामक राज्य का गठन नहीं हो पाया. इस समस्या को विधानसभा में भी अरी बहादुर गुरुंग द्वारा उठाया. अरिबहादुर गुरुंग कलिम्पोंग स्थित एक बैरिस्टर और पश्चिम बंगाल विधानसभा के सदस्य थे. इसके अलावा भी यह मुद्दा कई बार उठाया गया, जिसके बारे में विस्तार से यहाँ दर्शाया गया है.
गोरखालैंड वर्ष 1907 से भारत की स्वंत्रता तक (Gorkhaland Issue Beginning)
एक अलग राज्य के रूप में गोरखालैंड की मांग वर्ष 1907 से की जा रही है, इस तरह से ये समझा जा सकता है कि गोरखालैंड समस्या अंग्रेजों के समय से ही चली आ रही है. इतिहास की बात की जायें तो वर्ष 1917 में हिल्मन एसोसिएशन ने तात्कालिक बंगाल सरकार को एक मेमोरेंडम दिया था कि इस क्षेत्र के लिए एक अलग प्रशासन की स्थापना की जाए. वर्ष 1929 में हिलमन एसोसिएशन ने साइमन कमीशन से पहले पुनः इस मुद्दे को उठाया था. वर्ष 1930 के समय इस एसोसिएशन और कुर्सेओंग गोरखा लाइब्रेरी द्वारा एक संयुक्त याचिका जमा की गई. यह संयुक्त याचिका तात्कालिक स्टेट ऑफ़ इंडिया के सचिव सामुएल होअर के पास की गई.
पुनः वर्ष 1941 में हिल्मन एसोसिएशन ने रूप नारायण सिन्हा की अध्यक्षता में स्टेट ऑफ़ इंडिया के तात्कालिक सचिव लार्ड पेथिक लॉरेंस को दर्जेलिंग को पश्चिम बंगाल से हटाने के लिए कहा ताकि दार्जीलिंग को एक अलग प्रशासन प्राप्त हो सके और एक अलग राज्य की स्थापना हो सके. सन 1947 के समय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने पंडित जवाहर लाल नेहरू और लियाक़त अली खान के पास भी इस मेमोरेंडम को जमा किया. इस समय पंडित जवाहर लाल नेहरु अंतरिम सरकार के उप-अध्यक्ष और लियाक़त अली खान इसी अंतरिम सरकार के वित्त मंत्री थे. कम्युनिस्ट पार्टी की मांग थी कि दाजीलिंग और सिलिगुरी को मिला कर एक नए राज्य ‘गोरखिस्तान’ की स्थापना की जाए.
भारत स्वतंत्र होने के बाद भी इस मांग में किसी भी तरह का परिवर्तन नहीं आया. इस समय अखिल भारतीय गोरखा लीग पहली राजनैतिक पार्टी बनी जिन्होंने जाति के लोगों के लिए विशेष अधिकारों की मांग करते हुए अपनी अलग अर्थनीति बनाने की मांग की. इस समय यह आन्दोलन एन बी गुरुंग के नेतृत्व में चल रहा था. इन्होने वर्ष 1952 में अपने राजनैतिक दल के साथ तात्कालिक प्रधानमन्त्री पंडित जवाहर लाल नेहरू से मिल कर बंगाल के इस बंटवारे की मांग की. वर्ष 1980 में इंद्रबहादुर राय की अध्यक्षता में दार्जीलिंग के भारतीय प्रान्त परिषद् ने तात्कालिक प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी को दार्जीलिंग को एक नया राज्य बनाने का प्रस्ताव दिया.
गोरखालैंड वर्ष 1986 का आन्दोलन (Gorkhaland Movement 1986)
वर्ष 1986 में सुभाष घीसिंग ने भी गोरखालैंड की मांग की और गोरखा नेशनल लिबरल फ्रंट के बैनर तले अपने समर्थकों के साथ इसे एक जनांदोलन का रूप दिया. इस बैनर के अंतर्गत दार्जीलिंग, सिलिगुरी और तराई के गोरखा जाति के लगभग सारे लोग एक साथ सामने आये. इस समय होने वाला यह आन्दोलन बहुत जल्द ही एक हिंसक रूप लेने लगा और आम जनता को जान माल का काफ़ी नुकसान हुआ. सरकारी आंकड़ों के अंतर्गत लगभग इस हिंसक आन्दोलन में 1200 लोग मारे गये. इस समय पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता ज्योति बासु थे. इस आन्दोलन के साथ वर्ष 1988 में एक और अर्ध स्वायत संस्था ने जन्म लिया, जिसका नाम ‘दार्जीलिंग गोरखा हिल कौसिल’ यानि DGHC रखा गया. ‘दार्जीलिंग गोरखा हिल कौंसिल’, 23 वर्ष तक लगातार एक स्वायत्त संस्थान के रूप में यहाँ के प्रशासन कार्य को संभालती रही.
गोरखालैंड जनमुक्ति मोर्चा (Gorkhaland Janmukti Morcha)
DGHC का चौथा चुनाव वर्ष 2004 में होने वाला था, किन्तु इस चुनाव को सरकार ने टाल दिया और सुभाग घीसिंग को इस संस्था का संरक्षक बना दिया. सुभाष घीसिंग इसके छठवें ट्राइबल कौंसिल की स्थापना तक संरक्षक बने रहे. इसके बाद इस संस्था के भूतपूर्व कौंसिल के अन्दर एक दुसरे के प्रति असंतोष बढ़ने लगा. इसी समय सुभाष घीसिंग के सबसे क़रीबी बिमल गुरुंग ने GNLF से ख़ुद को हटाने की इच्छा व्यक्त की. इंडियन आइडल के प्रतिभागी प्रशांत तमांग को सपोर्ट करते हुए पुनः बिमल गुरुंग को लोगों का साथ प्राप्त होने लगा. इस समय वे सुभाष घीसिंग का राजनीतिक पद को अपने नाम करने के लिए सक्षम हो गये. इसके उपरान्त उन्होंने ‘गोरखा जनमुक्ति मोर्चा’ का गठन किया, जिसके अंतर्गत उन्होंने गोरखालैंड की मांग को एक बार फिर से उठाया. यह वर्ष 2007 का समय था.
वर्ष 2009 लोकसभा चुनाव के समय भारतीय जनता पार्टी ने अपने घोषणा पत्र में यह ऐलान किया कि यदि वे चुनाव जीत कर सत्ता में आते हैं, तो वे दो अलग राज्यों का निर्माण करेंगे. ये दो राज्य थे तेलंगाना और गोरखालैंड. इस शर्त पर गोरखालैंड जनमुक्ति मोर्चा ने दार्जीलिंग में भाजपा के उम्मीदवार जसवंत सिंह को अपना समर्थन दिया और जसवंत सिंह यहाँ पर लगभग 51.5% वोट से चुनाव में सफ़ल हुए. इसी वर्ष जुलाई के बजट सत्र के दौरान राजीव प्रताप रूडी और सुषमा स्वराज ने गोरखालैंड के निर्माण की ख़ूब वकालत की.
इस आन्दोलन के समाप्त होते पुनः एक नयी ऑटोनोमस संस्था ने जन्म लिया. इस संस्था की स्थापना 18 जुलाई वर्ष 2011 में की गयी थी जिसका नाम ‘गोरखालैंड टेरीटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन’ रखा गया. बिमल गुरुंग अभी भी इस संस्था के मुख्य कार्यकारी के रूप में काम कर रहे हैं. हालाँकि पिछले कई महीने से ‘गोरखा जनमुक्ति मोर्चा’, ‘गोरखालैंड टेरीटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन’ के कामों पर सवाल उठा रही थी, और अपनी राजनीतिक पार्टी के बल पर ‘गोरखा जनमुक्ति मोर्चा आन्दोलन’ को फिर से जागृत कर रही थी.
गोरखालैंड आन्दोलन में महत्वपूर्ण मोड़ (Gorkhaland Controversy)
इस आन्दोलन में मदन तमांग की हत्या से एक नया मोड़ आता है. मदन तमांग अखिल भारतीय गोरखा लीग के नेता थे. इनकी हत्या 21 मई 2010 को हुई. इस हत्या के पीछे गोरखालैंड मुक्ति मोर्चा के लोगों का हाथ माना जाता है. इनकी हत्या के बाद दार्जीलिंग, कर्सियांग और कलिम्पोंग में प्रशासन अस्त व्यस्त हो गया. मदन तमांग की हत्या के बाद पश्चिम बंगाल के तात्कालिक सरकार ने ‘गोरखा जनमुक्ति मोर्चा’ के ख़िलाफ़ सख्त कदम उठाने की बात कही थी.
8 फरवरी 2011 के समय गोरखा मुक्ति मोर्चा के तीन लोगों को गोली मार दी गयी. यह गोली पुलिस ने चलाई थी. दरअसल ये सभी जनमुक्ति मोर्चा के कार्यकर्ता ने बिमल गुरुंग के गोरूबथान से जैगाओ के बीच के पदयात्रा में किसी विशेष उद्देश्य से घुसने की कोशिश की थी. तीन लोगों को गोली मार देने के बाद पूरे शहर का माहौल बिगड़ गया और गोरखा जनमुक्ति मोर्चा द्वारा एक असामयिक हड़ताल का ऐलान किया गया. यह हड़ताल 9 दिनों तक जारी रही.
वर्ष 2011 के पश्चिम बंगाल के विधानसभा का चुनाव हुआ. इस चुनाव में गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के तीन उम्मीदवारों को दार्जिलिंग के तीन विशेष विधानसभा क्षेत्र में जीत मिली. इससे एक बार पुनः ये प्रमाणित हो गया था कि दार्जीलिंग में अब भी गोरखालैंड की मांग प्रबल रूप से चल रही है. इस चुनाव में दार्जीलिंग विधानसभा क्षेत्र से त्रिलोक दीवान, कलिम्पोंग विधानसभा क्षेत्र से बहादुर छेत्री और कर्सियांग विधानसभा क्षेत्र से रोहित शर्मा को चुनाव में जीत मिली. इसी के साथ एक निर्दलीय नेता विल्सन चम्परी को भी कालचीनी विधानसभा क्षेत्र से जीत मिली. विल्सन चम्परी को गोरखा जनमुक्ति मोर्चा की तरफ से सहयोग प्राप्त था.
गोरखालैंड प्रादेशिक प्रशासन (Gorkhaland Territorial Administration)
यह एक अर्ध – स्वायत्त संस्था थी. 2011 के विधानसभा चुनाव के दौरांन एक चुनावी रैली में 18 जुलाई को ममता बनर्जी ने कहा था कि दार्जिलिंग पश्चिम बंगाल का एक अभिन्न अंग है. जब ममता बनर्जी ने ये कहा कि अब गोरखालैंड आन्दोलन की सपाटी है, इसी समय हालाँकि बिमल गुरुंग ने कहा कि यह गोरखालैंड बनाने का अगला क़दम है. यह वार्तालाप आम लोगों के सामने ही सिलिगुरी के पिनटेल नामक स्थान पर ट्रिपरटाइट समझौता को साइन करते समय की गई. इसी के साथ कुछ समय बाद पश्चिम बंगाल विधानसभा में जीटीए के निर्माण के लिए एक नया बिल पास किया गया. 29 जुलाई 2012 को होने वाली जीटीए के एक चुनाव मे गोरखा जनमुक्ति मोर्चा को 17 सीट पर जीत हासिल हुई वहीँ पर बाक़ी 28 सीटों की स्थिति जस की तस बनी रही.
30 जुलाई 2013 को बिमल गुरुंग ने जीटीए से इस्तीफा दे दिया और गोरखालैंड की मांग एक बार फिर से की.
गोरखालैंड वर्ष 2013 का आन्दोलन (Gorkhaland Movement 2013)
30 जुलाई 2013 में सर्वसम्मति से एक रिसोल्युशन पास किया और आंध्रा प्रदेश के तेलंगाना राज्य के गठन की प्रक्रिया शुरू हो गयी. इसी के साथ देश भर में गोरखालैंड की मांग भी शुरू हो गयी. इस दौरान तीन दिनों का बंद भी बुलाया गया और 3 अगस्त से इस पार्टी ने एक अनिश्चित कालीन हड़ताल की घोषणा की. इस बंद को कलकत्ता हाई कोर्ट ने ग़ैर कानूनी बताया और राज्य सरकार ने पारामिलिट्री के 10 समूहों को मौके पर भेजा ताकि किसी तरह की हिंसा शुरू न हो जाये. इसी के साथ जनमुक्ति मोर्चा के कुछ नेताओं और कार्यकर्ताओं को भी गिरफ्तार कर लिया गया. इसके बाद इस राजनीतिक पार्टी ने इस बंद को आम लोगों से जोड़ दिया और इसे ‘जनता बंद’ नाम दिया. इस दौरान GJAC ने 18 अगस्त के बाद भी इस आन्दोलन को जारी रखते हुए केंद्र सरकार से दखल देने की मांग की.
गोरखालैंड वर्ष 2017 का आन्दोलन (Gorkhaland Movement 2017)
जुलाई 2017 के समय दार्जीलिंग में गोरखालैंड की मांग चरम सीमा पर चली गयी और इस पहाड़ी क्षेत्र में प्रशासन पूरी तरह अस्त व्यस्त हो गया. इस वर्ष यह आन्दोलन 5 जून को शुरू हुआ, जब राज्य सरकार ने ये ऐलान किया कि राज्य भर के सभी स्कूलों मे बँगला भाषा पढना – पढ़ाना अनिवार्य होगा. दार्जिलिंग के कई लोग नेपाली भाषा बोलने वाले होते हैं, उन्हें ऐसा लगा कि राज्य सरकार का यह फैसला उन पर थोपा जा रहा है. उन्होंने अपनी संस्कृति, भाषा और पहचान बचाने के लिए एक आन्दोलन शुरू किया, जो बहुत जल्द गोरखालैंड की मांग का रूप लेने लगी.
यह आन्दोलन इस तरह से 45-50 दिन से चल रहा है, जिसमे 36 दिनों का असामयिक हड़ताल भी हो चुकी है. इस दौरान यहाँ पर दंगे, गाड़ियों में आग लगाना, सरकारी संपत्तियों को नुकसान पहुंचाना, घर आदि जलाने जैसा अशान्तिपूर्ण कार्य हुये हैं. यहाँ पर रोज़ एक बड़ी संख्या में रैली की जा रही है, जिसमे एक बड़ी संख्या में लोग मिल कर गोरखालैंड की मांग को और भी मजबूत कर रहे हैं. इसी के साथ कई ऐसे लोग जिन्होने गोरखालैंड की मांग का विरोध किया है, उन्हें कई तरह से क्षति पहुंचाने की कोशिश की गयी. यहाँ की इन्टरनेट व्यवस्था को राज्य सरकार द्वारा एक लम्बे समय तक बंद रखा गया ताकि ऑनलाइन साइट्स की मदद से भ्रांतियां फैला कर इस आग को और हवा न दिया जा सके.
इन्टरनेट बैन को मानव अधिकार के ख़िलाफ़ माना जा रहा है. गोरखालैंड के समर्थकों का कहना है कि राज्य की पुलिस यहाँ पर रबर बुलेट की जगह सच्चे गोलाबारूद का इस्तेमाल कर रही है. इस वजह से यहाँ पर लगभग 9 लोगों की मृत्यु भी हो गयी. जहाँ एक तरफ गोरखालैंड की मांग ज़ारी है, वहीँ पर दूसरी तरफ आम लोगों का जीवन अस्त व्यस्त हो रहा है. एक लम्बे समय से स्कूल, कॉलेज आदि न खुलने पर विद्यार्थियों का समय नष्ट हो रहा है और उन्हें इस बात की चिंता लगी हुई है कि क्या इस वर्ष वे अपने क्लास की परीक्षा दे पायेंगे. आगे की रणनीति का किसी को भी अंदाजा नहीं हो पा रहा है. राज्य सरकार अभी भी किसी निर्णय पर नहीं पहुँच पायी है कि गोरखालैंड की मांग पूरी की जाए या नहीं.
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