विश्वामित्र के क्षत्रिय से ब्राह्मण बनने तक का जीवन एवं मेनका की कथा (जीवनी, विश्वामित्र जन्म कब हुआ था, विश्वामित्र किसके गुरु थे, विश्वामित्र के गुरु कौन थे, विश्वामित्र की कितनी संतान थी, पिता का नाम, रचनाएँ, कहानी, विश्वामित्र का अन्य नाम, तपस्या, युद्ध) menka and vishwamitra Biography story in hindi (father name, story, other name, date of birth, guru)
महर्षि विश्वामित्र इतिहास के सबसे श्रेष्ठ ऋषियों में से एक जो कि जन्म से एक ब्राह्मण नहीं थे लेकिन अपने तप और ज्ञान के कारण इन्हें महर्षि की उपाधि मिली जिसके साथ ही इन्हें चारो वेदों का ज्ञान एवम ॐ कार का ज्ञान प्राप्त हुआ। यह पहले ऋषि थे जिन्होंने गायत्री मंत्र को समझा | कहा जाता हैं ऐसे केवल 24 गुरु हैं जो गायत्री मन्त्र को जानते हैं उन्ही में से एक एवं सबसे पहले थे महर्षि विश्वामित्र ।
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महर्षि विश्वामित्र का जीवन परिचय
नाम | महर्षि विश्वामित्र |
अन्य नाम | राजा कौशिक |
जन्म | कार्तिक शुल्कपक्ष की तृतीय तिथि |
पिता का नाम | महाराज गाधि |
संतान | सौ पुत्रो के पिता |
विश्वामित्र जन्म से एक क्षत्रिय एवं प्रजा प्रिय अतिबलशाली राजा कौशिक थे पर अपने हठ एवम तपस्या के कारण उन्होंने महर्षि की उपाधि प्राप्त की और ऐसा उन्होंने क्यूँ किया ? और किस कारण उन्हें इसकी शिक्षा मिली ? यह बहुत ही अच्छे प्रश्न हैं जिनके बारे में आप आगे विस्तार से पढेंगे |
राजा कौशिक से महर्षि विश्वामित्र तक का सफ़र
महर्षि वशिष्ठ से युद्ध की कथा
युगों पूर्व एक शक्तिशाली एवम प्रिय क्षत्रिय राजा थे कौशिक | यह कुषा नामक राजा के पौत्र थे | राजा कुषा की चार संतानों में से एक थे कुशनाबर जिन्होंने पुत्रकामेश्ठी यज्ञ द्वारा कधि नामक पुत्र को प्राप्त किया इन्ही राजा कधि की संतान थी कौशिक | कौशिक एक महान राजा थे इनके संरक्षण में प्रजा खुशहाल थी |
राजा कौशिक अक्सर ही अपनी प्रजा के बीच जाते थे | एक बार वे अपनी विशाल सेना के साथ जंगल की तरफ गये रास्ते में महर्षि वशिष्ठ का आश्रम पड़ा जहाँ रुककर उन्होंने महर्षि से भेंट की | गुरु वशिष्ठ ने राजा कौशिक का बहुत अच्छा आतिथी सत्कार किया और उनकी विशाल सेना को भर पेट भोजन भी कराया | यह देख राजा कौशिक को बहुत आश्चर्य हुआ कि कैसे एक ब्राह्मण इतनी विशाल सेना को इतने स्वादिष्ट व्यंजन खिला सकता हैं | उनकी जिज्ञासा शांत करने के लिये उन्होंने गुरु वशिष्ठ से प्रश्न किया – हे गुरुवर ! मैं यह जानने की उत्सुक हूँ कि कैसे आपने मेरी विशाल सेना के लिए इतने प्रकार के स्वादिष्ट भोजन का प्रबंध किया | तब गुरु वशिष्ठ ने बताया – हे राजन ! मेरे पास मेरी नंदिनी गाय हैं जो कि स्वर्ग की कामधेनु गया की बछड़ी हैं जिसे मुझे स्वयं इंद्र ने भेट की थी | मेरी नंदनी कई जीवो का पोषण कर सकती हैं | नंदनी के बारे में जानकर राजा कौशिक के मन में इच्छा उत्पन्न हुई और उन्होंने कहा – हे गुरुवर! मुझे आपकी नंदनी चाहिये बदले में आप जितना धन चाहे मुझसे ले ले | गुरु वशिष्ठ ने हाथ जोड़कर निवेदन किया – हे राजन ! नंदनी मुझे अत्यंत प्रिय हैं वो सदा से मेरे साथ रही हैं मुझसे बाते करती हैं मैं अपनी नंदनी का मोल नहीं लगा सकता वो मेरे लिए अनमोल प्राण प्रिय हैं | राजा कौशिक इसे अपना अनादर समझते हैं और क्रोध में आकर सेना को आदेश देते हैं कि वो बल के जरिये नंदनी को गुरु से छीन ले | आदेश पाते ही सैनिक नंदनी को हाँकने का प्रयास करते हैं लेकिन नंदनी एक साधारण गाय नहीं थी वो अपने पालक गुरु वशिष्ठ से आज्ञा लेकर अपनी योग माया की शक्ति से राजा की विशाल सेना को ध्वस्त कर देती हैं और राजा को बंदी बनाकर वशिष्ठ के सामने लाकर खड़ा कर देती हैं | वशिष्ठ अपनी सेना के नाश से क्रोधित हो गुरु वशिष्ठ पर आक्रमण करते हैं गुरु वशिष्ठ क्रोधित हो जाते हैं और राजा के एक पुत्र को छोड़ सभी को शाप देकर भस्म कर देते हैं | अपने पुत्र के इस अंत से दुखी कौशिक अपना राज पाठ अपने एक पुत्र को सौंप तपस्या के लिये हिमालय चले जाते हैं और हिमालय में कठिन तपस्या से वे भगवान शिव को प्रसन्न करते हैं | भगवान शिव प्रकट होकर राजा को वरदान मांगने का कहते हैं | तब राजा कौशिक शिव जी से सभी दिव्यास्त्र का ज्ञान मांगते हैं | शिव जी उन्हें सभी शस्त्रों से सुशोभित करते हैं |
धनुर्विद्या का पूर्ण ज्ञान होने के बाद राजा कौशिक पुनः अपने पुत्रों की मृत्यु का बदला लेने के लिये वशिष्ठ पर आक्रमण करते हैं और दोनों तरफ से घमासान युद्ध शुरू हो जाता हैं | राजा के छोड़े हर एक शस्त्र को वशिष्ठ निष्फल कर देते हैं | अंतः वे क्रोधित होकर कौशिक पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करते हैं जिससे चारो तरफ तीव्र ज्वाला उठने लगती हैं तब सभी देवता वशिष्ठ जी से अनुरोध करते हैं कि वे अपना ब्रह्मास्त्र वापस ग्रहण कर ले | वे कौशिक से जीत चुके हैं इसलिए वे पृथ्वी की इस ब्रह्मास्त्र से रक्षा करें | सभी के अनुरोध और रक्षा के लिए वशिष्ठ शांत हो जाते हैं ब्रह्मास्त्र वापस ले लेते हैं | वशिष्ठ से मिली हार के कारण कौशिक राजा के मन को बहुत गहरा आघात पहुँचता हैं वे समझ जाते हैं कि एक क्षत्रिय की बाहरी ताकत किसी ब्राह्मण की योग की ताकत के आगे कुछ नहीं इसलिये वे यह फैसला करते हैं कि वे अपनी तपस्या से ब्रह्मत्व हासिल करेंगे और वशिष्ठ से श्रेष्ठ बनेंगे और वे दक्षिण दिशा में जाकर अपनी तपस्या शुरू करते हैं जिसमे वे अन्न का त्याग कर फल फुल पर जीवन व्यापन करने लगते हैं | उनकी कठिन तपस्या से उन्हें राजश्री का पद मिलता हैं | अभी भी कौशिक दुखी थे क्यूंकि वे संतुष्ट नहीं थे |
विश्वामित्र ने किया नये स्वर्ग का निर्माण :
एक राजा थे त्रिशंकु, उनकी इच्छा थी कि वे अपने शरीर के साथ स्वर्ग जाना जाते थे जो कि पृकृति के नियमों के अनुरूप नहीं था | इसके लिए त्रिशंकु वशिष्ठ के पास गये पर उन्होंने नियमो के विरुद्ध ना जाने का फैसला लिया और त्रिशंकु को खाली हाथ लौटना पड़ा | फिर त्रिशंकु वशिष्ठ के पुत्रों के पास गये और अपनी इच्छा बताई तब पुत्रों ने क्रोधित होकर उन्हे चांडाल हो जाने का शाप दिया क्यूंकि उन्होंने ने इसे अपने पिता का अपमान समझा | फिर भी त्रिशंकु नहीं माने और विश्वामित्र के पास गये | तब विश्वामित्र ने उन्हें उनकी इच्छा पूरी करने का वचन दिया जिस हेतु उन्होंने यज्ञ का आयोजन किया और इसके लिये कई ब्राह्मणों को न्यौता भेजा जिनमे वशिष्ठ के पुत्र भी थे | वशिष्ठ के पुत्रों ने यज्ञ का तिरस्कार किया उन्होंने कहा – हम ऐसे यज्ञ का हिस्सा कतई नहीं बनेगे जिसमे चांडाल के लिए हो और किसी क्षत्रिय पुरोहित के द्वारा किया जा रहा हो | उनके ऐसे वचनों को सुन विश्वामित्र ने उन्हें शाप दे दिया और वशिष्ठ के पुत्रो की मृत्यु हो गई | यह सब देखकर अन्य सभी भयभीत हो गये और यज्ञ का हिस्सा बन गये | यज्ञ पूरा किया गया जिसके बाद देवताओं का आव्हाहन किया गया लेकिन देवता नहीं आये तब विश्वामित्र ने क्रोधित होकर अपने तप के बल पर त्रिशंकु को शारीर के साथ स्वर्ग लोक भेजा लेकिन इंद्र ने उसे यह कह कर वापस कर दिया कि वो शापित हैं इसलिये स्वर्ग में रहने योग्य नहीं हैं | त्रिशंकु का शरीर बीच में ही रह गया तब विश्वामित्र ने अपने वचन को पूरा करने के लिये त्रिशंकु के लिए नये स्वर्ग एवम सप्त ऋषि की रचना की | इस सब से देवताओं को उनकी सत्ता हिलती दिखाई दी तब उन्होंने विश्वामित्र से प्रार्थना की | तब विश्वामित्र ने कहा कि मैंने अपना वचन पूरा करने के लिए यह सब किया हैं अब से त्रिशंकु इसी नक्षत्र में रहेगा और देवताओं की सत्ता को कोई हानि नहीं होगी |
इस सबके बाद विश्वामित्र ने फिर से अपनी ब्रह्मर्षि बनने की इच्छा को पूरा करना चाहा और फिर से तपस्या में लग गए | कठिन से कठिन ताप किये | श्वास रोक कर तपस्या की | उनके शरीर का तेज सूर्य से भी ज्यादा प्रज्ज्वलित होने लगा और उनके क्रोध पर भी उन्हें विजय प्राप्त हुई तब जाकर ब्रह्माजी ने उन्हें ब्रह्मर्षि का पद दिया और तब विश्वामित्र ने उनसे ॐ का ज्ञान भी प्राप्त किया और गायत्री मन्त्र को जाना |
उनके इस कठिन त़प के बाद वशिष्ठ ने भी उन्हें आलिंग किया और ब्राह्मण के रूप में स्वीकार किया | और तब जाकर इनमे कौशिक से महर्षि विश्वामित्र का नाम प्राप्त हुआ |
इंद्र ने मेनका को तप भंग करने भेजा :
जब विश्वामित्र साधना में लीन थे | तब इंद्र को लगा कि वे आशीर्वाद में इंद्र लोक मांगेंगे इसलिये उन्होंने स्वर्ग की अप्सरा को विश्वामित्र की तपस्या भंग करने भेजा चूँकि मेनका बहुत सुंदर थी विश्वामित्र जैसा योगी भी उसके सामने हार गया और उसके प्रेम में लीन हो गया | मेनका को भी विश्वामित्र से प्रेम हो गया | दोनों वर्षों तक संग रहे तब उनकी संतान शकुंतला ने जन्म लिया लेकिन जब विश्वामित्र को ज्ञात हुआ कि मेनका स्वर्ग की अप्सरा हैं और इंद्र द्वारा भेजी गई हैं तब विश्वामित्र ने मेनका को शाप दिया | इन दोनों की पुत्री पृथ्वी पर ही पली बड़ी और बाद में राजा दुष्यंत से उनका विवाह हुआ और दोनों की सन्तान भरत के नाम पर देश का नाम भारत पड़ा |
विश्वामित्र एवम राम :
विश्वामित्र ने शस्त्रों का त्याग कर दिया था इसलिए वे स्वयं राक्षसी ताड़का से युद्ध नहीं कर सकते थे इसलिये उन्होंने अयोध्या से भगवान राम को जनकपुरी में लाकर तड़का का वध करवाया |
इन्ही विश्वामित्र के कहने पर भगवान राम ने सीता के स्वयम्बर में हिस्सा लिया |
FAQ
महर्षि विश्वामित्र एक महान ऋषि एवं तपस्वी थे।
महर्षि विश्वामित्र का असली नाम राजा कौशिक था।
श्री राम के गुरु थे महर्षि विश्वामित्र।
महर्षि विश्वामित्र सौ पुत्रो के पिता थे।
महर्षि विश्वामित्र कान्यकुब्ज के पुरुवंशी महाराज गाधि के पुत्र थे।
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