ऋषि दुर्वासा जीवन परिचय कहानियां | Rishi Durvasa Story In Hindi

Rishi Durvasa biography story in hindi हिन्दू पुराणों के अनुसार ऋषि दुर्वासा, जिन्हें दुर्वासस भी कहते है, एक महान ऋषि हुआ करते थे. पुराणों में ऋषि दुर्वासा का नाम मुख्य ऋषि मुनियों के साथ लिया जाता है. ऋषि दुर्वासा को युगों युगों तक याद किया गया है, ये महान ऋषि ने सतयुग, द्वापर और त्रेता युग में भी मानव जाति को ज्ञान की शिक्षा दी है. ऋषि दुर्वासा शिव जी का रूप माने जाते है, वे खुद भी शिव जी के बहुत बड़े भक्त थे. ऋषि दुर्वासा अत्याधिक गुस्से वाले थे, जिस तरह शिव जी का गुस्सा जल्दी शांत नहीं होता था, उसी तरह इनका भी गुस्सा बहुत खतरनाक था. ऋषि दुर्वासा को देवी देवता एवं समस्त मानव जाति द्वारा बहुत सम्मान प्राप्त था, वे जहाँ जाते थे उनको सम्मान मिलता था.

ऋषि दुर्वासा शिव के पुत्र थे, लेकिन उनसे बिलकुल अलग थे. भगवान् शिव को मनाना जितना आसान था, ऋषि दुर्वासा को मनाना, प्रसन्न करना उतना ही मुश्किल काम था. लेकिन दोनों का गुस्सा एक समान था. ऋषि दुर्वासा का क्रोध इतना तेज था, जो कई बार उनके लिए भी घातक हो जाता था. क्रोध के चलते दुर्वासा किसी भी को  दंड, श्राप दे दिया करते थे, उनके क्रोध से राजा, देवी-देवता, दैत्य, असुर कोई भी अछुता नहीं था.

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ऋषि दुर्वासा जीवन परिचय व कहानियां Rishi Durvasa Story In Hindi

ऋषि दुर्वासा जन्म कथा (Rishi Durvasa Avatar) –

ऋषि दुर्वासा के जन्म से जुड़ी बहुत सी कथाएं है. इनके पिता अत्री और माता अनसुइया थी. ब्रह्मानंद पुराण के अध्याय 44 के अनुसार ब्रह्मा और शिव जी एक बार झगड़ा हो जाता है. इस झगड़े में शिव जी अत्यंत क्रोध में आ जाते है. इनके क्रोध के डर से सभी देवी देवता यहाँ वहां छिप जाते है. इस बात से परेशान पार्वती जी शिव जी से कहती है, उनके इस गुस्से के कारण अब उनका साथ में रहना मुश्किल है. शिव जी को गलती का एहसास होता है, और वे तय करते है कि वे अपने गुस्से को ऋषि अत्री की पत्नी अनसुइया के अंदर संचित कर देंगें. देवी अनसुइया के अंदर शिव के इस भाग से एक बच्चे का जन्म होता है, जिसका नाम दुर्वासा होता है. शिव के गुस्से से जन्मे ऋषि दुर्वासा का स्वाभाव उन्ही की तरह बहुत गुस्से वाला और चिड़चिड़ा था.

इसके अलावा एक और कथा ऋषि दुर्वासा के जन्म के लिए कही जाती है. ऋषि दुर्वासा के पिता मह्रिषी अत्री ब्रह्मा जी के मांस पुत्र कहे जाते है. मह्रिषी अत्री की पत्नी अनसुइया एक पतिव्रता पत्नी थी. इनकी पतिव्रता के चर्चे देवलोक तक थे. तब एक बार त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु, महेश की पत्नियाँ सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती जी ने अनसुइया के पतिव्रता धर्म की परीक्षा लेने का निर्णय लिया. तीनों देवियों ने अपने पतियों को देवी अनसुइया के सतीत्व की परीक्षा लेने के लिए उनके आश्रम भेजा. त्रिदेव माता अनसुइया के तपोबल के आगे जीत न सके, और हार मान कर उनके साथ शिशु रूप में रहने लगे. तीनों देवियों को अपनी गलती का एहसास हुआ और उन्होंने माता अनसुइया से अपने अपने पतियों को मुक्त करने के लिए प्राथना की. अनसुइया ने उनकी बात का मान रखा. तब त्रिदेव जाते समय देवी अनसुइया को वरदान देते है कि वे तीनों उनके पुत्र के रूप में जन्म लेंगें. कुछ समय बाद देवी अनसुइया को तीन पुत्र चंद्रमा (ब्रह्मा जी का रूप), दत्तात्रेय (विष्णु जी का रूप) और दुर्वासा (शिव जी का रूप) प्राप्त होते है.

एक अन्य कथा के अनुसार महर्षि अत्री और उनकी पत्नी अनसुइया को कोई संतान नहीं होती है. तब ब्रह्मा जी कहते पर संतान प्राप्ति के लिए वे दोनों ऋक्षकुल पर्वत पर त्रिदेव की कड़ी तपस्या करते है. इनकी तपस्या से खुश होकर तीनों उन्हें वरदान देते है कि वे उनके पुत्र के रूप में उन्हें प्राप्त होंगें. तब फिर ब्रह्मा जी के रूप में सोम, विष्णु जी के रूप में दत्त और शिव जी के रूप में दुर्वासा जी होते है.

ऋषि दुर्वासा के जीवन से जुड़ी कथाएं (Rishi Durvasa story) –

दुर्वासा और शकुंतला

कालिदास द्वारा लिखित अभिज्ञानशाकुन्तलम् के अनुसार ऋषि दुर्वासा शकुंतला से कहते है कि वे उनका स्वागत सत्कार करे, लेकिन शकुंतला जो अपने प्रेमी दुष्यंत का इंतजार कर रही होती है, ऋषि दुर्वासा ने मना कर देती है. तब ऋषि क्रोध में आकर उसे श्राप देते है कि उसका प्रेमी उसे भूल जाये. इस श्राप से भयभीत शकुन्तला ऋषि दुर्वासा से माफ़ी मांगती है, तब ऋषि श्राप को थोडा कम करते हुए कहते है कि दुष्यंत उन्हें तब पहचानेगा जब वो अपनी दी हुई अंगूठी देखेगा. ऋषि दुर्वासा ने जैसा कहा था वैसा ही होता है. शकुंतला और दुष्यंत मिल जाते है, और सुख से अपना जीवन व्यतीत करने लगते है, उनका एक बेटा भी होता है, भारत.

दुर्वासा और कुंती –

महाभारत में ऐसी बहुत सी कथाएं है, जहाँ ऋषि दुर्वासा से लोगों ने वरदान मांगे और उन्होंने प्रसन्न होकर उन्हें आशीषित किया. इन्ही में से एक है कुंती और दुर्वासा से जुड़ी कथा. कुंती एक जवान लड़की थी, जिसे राजा कुंतीभोज ने गोद लिया हुआ था.  राजा अपनी बेटी को एक राजकुमारी की तरह रखते थे. दुर्वासा एक बार राजा कुन्तिभोज के यहाँ मेहमान बनकर गए. वहां कुंती पुरे मन से ऋषि की  सेवा और आव भगत की. कुंती ने ऋषि के गुस्से को जानते हुए, उन्हें समझदारी के साथ खुश किया. ऋषि दुर्वासा कुंती की इस सेवा से बहुत खुश हुए, और जाते वक्त उन्होंने कुंती को अथर्ववेद मन्त्र के बारे में बताया, जिससे कुंती अपने मनचाहे देव से प्राथना कर संतान प्राप्त कर सकती थी. मन्त्र कैसे काम करता है, ये देखने के लिए कुंती शादी से पहले सूर्य देव का आह्वान करती है, तब उन्हें कर्ण प्राप्त होता है, जिसे वे नदी में बहा देती है. फिर इसके बाद उनकी शादी पांडू से होती है, आगे चलकर इन्ही मन्त्रों का प्रयोग करके पांडव का जन्म हुआ था. महाभारत के कर्ण से जुड़ी रोचक बातें जानने के लिए यहाँ क्लिक करें.

दुर्वासा, राम एवं लक्षमण –

वाल्मीकि रामायण के अनुसार उत्तर कांड के समय एक बार ऋषि दुर्वासा राम के पास जाते है. वहां लक्षमण राम जी के दरबारी बन कर खड़े रहते है, तब ऋषि उनसे अंदर जाने की इच्छा प्रकट करते है. उस समय राम मृत्यु के देवता यम के साथ किसी विषय में गहन बात कर रहे होते है. बात शुरू होने से पहले यम राम को कहते है कि उनके बीच में जो भी बातचीत होगी वो किसी को नहीं पता चलनी चाहए, और बात के बीच में अगर कोई कमरे में आकर देखता या सुनता है तो मार दिया जायेगा. राम इस बात की हामी भर, वचन देते है और अपने भरोसेमंद भाई को दरवाजे के बाहर खड़ा कर देते है.

दुर्वासा जब राम से मिलने की जिद करते है, तब लक्षमण उनसे प्यार से बोलते है कि वे राम की बात ख़त्म होने का इंतजार यहीं करें. ऋषि इस बात से क्रोधित हो जाते है और कहते है कि अगर लक्ष्मण राम से उनके आगमन के बारे में नहीं बताते है तो वे पूरी अयोध्या को श्राप दे देंगें. लक्ष्मण धर्म संकट में पड़ जाते है तब वे सोचते है कि पूरी अयोध्या के लोगों को बचाने के लिए उनका अकेला मरना सही है. तब बे राम जी के पास अंदर जाकर ऋषि दुर्वासा के आगमन की बात बताते है. राम यम के साथ अपनी वार्तालाप ख़त्म करते है, और तुरंत ऋषि के पास उनकी सेवा के लिए चले जाते है. राम ऋषि दुर्वासा की आव भगत करते है, जिसके बाद ऋषि अपने रस्ते चले जाते है. इसके बाद राम को अपनी बात याद आती है, वे अपने पुत्र जैसे भाई लक्ष्मण को नहीं मारना चाहते है. लेकिन यम को दिए वचन के चलते वे मुश्किल में रहते है. तब राम इस दुविधा के हल के लिए गुरु वशिष्ठ को बुलाते है. वशिष्ठ, लक्ष्मण को आदेश देते है कि वे राम को छोड़ चले जाएँ, इस तरह का बिछड़ना मृत्यु के समान ही है. इसके बाद लक्ष्मण अपने पिता समान भाई को छोड़, सरायु नदी के तट पर चले जाते है.

ऋषि दुर्वासा और अम्बरीष –

भगवत पुराण के अनुसार अम्बरीष, विष्णु जी के एक बड़े भक्त थे. एक बार ऋषि दुर्वासा राजा अम्बरीष के भवन में आये. उस समय राजा का निर्जला एकादशी का व्रत चल रहा होता है, वे उसे द्वादशी के दिन पारण के समय तोड़ते वाले थे. निर्जला भीमसेनी एकादशी व्रत, कथा, पूजा विधि के बारे में यहाँ पढ़ें. ऋषि दुर्वासा के आने पर उन्होंने पहले प्रसाद ऋषि को देना चाह, लेकिन ऋषि जी पहले यमुना नदी में स्नान करना चाहते थे. तो वे ये बोलकर कि स्नान के बाद वे प्रसाद ग्रहण करेंगें, चले गए. ऋषि को वहां अधिक समय लग गया, इस दौरान पारण का समय भी निकल रहा था. अम्बरीष को इस बात की चिंता होने लगी, उन्हें समझ नहीं आ रहा था क्या करें. घर आये ऋषि मुनि को बिना खिलाये खाना भी धर्म के खिलाफ था. तब अम्बरीष राजा ने अपने अन्य गुरुओं के कहने पर प्रसाद ग्रहण कर लिया, ताकि उनका व्रत समय पर समाप्त हो सके. कुछ देर बाद जब ऋषि आते है और इन्हें इस बात का बोध होता है तो वे क्रोध में आ जाते है. क्रोध से भरकर ऋषि अम्बरीष को मरने के लिए अपनी जटाओं से एक राक्षसी को उत्पन्न करते है.

राजा अम्बरीष इस बात से घबराते नहीं है, बल्कि वे विष्णु जी के उपासना करने लगते है. जैसे ही वो राक्षसी राजा के निकट जाती है, विष्णु जी के सुदर्शन चक्र से उसका अंत हो जाता है. इसके बाद सुदर्शन चक्र ऋषि दुर्वासा को मरने के लिए उनके पीछे सक्रीय हो जाता है. ऋषि को प्रथ्वी में कही शरण नहीं मिलती, फिर वे अपने पिता शिव के पास जाते है. शिव जी उन्हें विष्णु के पास जाने बोलते है. विष्णु जी ऋषि से बोलते है कि वे अम्बरीष से माफ़ी मांगेंगे तब ही ये सुदर्शन चक्र शांत होगा. ऋषि तुरंत अम्बरीष के पास जाते है और उनसे क्षमा मांगते है. तब अम्बरीष उन्हें माफ़ कर, विष्णु जी से प्राथना कर सुदर्शन चक्र वापस लेने को बोलते है.

ऋषि दुर्वासा, दुर्योधन और पांडव –

एक बार ऋषि दुर्वासा हस्तिनापुर में राजकुमार दुर्योधन के महल में गए. दुर्योधन ऋषि के बारे में बहुत अच्छे से जनता था, उसे ऋषि मुनियों को खुश करना बखूबी आता था. ये सब वो इसलिए करता था ताकि ऋषि उसे खुश होकर वरदान दें. उसे ऋषि दुर्वासा के बारे में ये भी पता था कि वे अगर नाराज हो जाते है, तो किसी को भी भयंकर श्राप दे देते है. दुर्योधन ने इस बात के चलते अपने दुश्मन भाइयों से बदला लेने के लिए एक योजना बनाई.

पांडव उस समय अपना वनवास काट रहे थे. दुर्योधन ने ऋषि को अपने बड़े भाई युधिष्ठिर की कुटिया में जाने को बोला, उसे पता था जिस समय वे जायेंगें उस समय द्रोपदी भोजन कर चुकी होगी, और पांडव के पास ऋषि को खिलाने के लिए कुछ नहीं होगा. ऋषि दुर्वासा, दुर्योधन के कहने पर पांडव से मिलने वन में जाते है, वनवास की इस अवधि के दौरान पांडवों अक्षय पात्र के माध्यम से भोजन प्राप्त करते थे. पांडवों को खिलाकर द्रौपदी भी अपना भोजन खा लेती है. द्रौपदी के पास सूर्य देव एक वरदान होता है, अक्षय पात्र में द्रौपदी अपने खाने से पहले कितने भी लोगों को खाना खिला सकती है. लेकिन उस दिन ऋषि के पहुँचने के पहले, द्रौपदी खा लेती है तो उसके पास उस समय परोसने के लिए कुछ भी नहीं होता है. पांडव ये सोच कर घबरा जाते है कि इतने बड़े महान ऋषि को क्या खिलायेंगें, ऋषि मुनि को भूखे पेट भेजना धर्म के खिलाफ है. उन्हें ये भी पता था ऋषि दुर्वासा धर्म के बहुत पक्के है, उन्हें इस बात पर गुस्सा आ सकता है, जिसके बाद वे श्राप भी दे सकते है.

इस दौरान जब ऋषि दुर्वासा अपने साथी ऋषि के साथ स्नान के लिए नदी जाते है, तब द्रोपदी अपने भाई समान मित्र कृष्णा से मदद के लिए प्राथना करती है. कृष्णा तुरंत द्रौपदी की मदद के लिए प्रकट हो जाते है, तब वे उनसे ऋषि दुर्वासा को खिलाने के लिए भोजन की मांग करती है. कृष्णा द्रौपदी से अक्षय पात्र सामने लाने को बोलते है, द्रौपदी अक्षय पात्र सामने लाती है, तो उसमें चावल और सब्जी के कुछ कण होते है. कृष्ण ये भोजन के अंश को ग्रहण कर लेते है, और भीम से ऋषि लोगों को बुलाने को बोलते है. भीम ऋषि दुर्वासा के पास जाकर उन्हें भोजन के लिए आमंत्रित करता है. ऋषि दुर्वासा को इस दौरान आभास हो जाता है कि कृष्ण ने अपनी माया से पांडव की कुटिया में भोजन प्रकट कर दिया है. ऋषि दुर्वासा और उनके अनुयायियों को उस समय भूख नहीं होती है, वे तो दुर्योधन के कहने पर पांडव की परीक्षा लेने आते है. पांडव कुटिया में 56 तरह के भोजन ऋषि के लिए तैयार हो जाते है. ऋषि को इस बात का आभास हो जाता है, वे नहीं चाहते भोजन का अपमान हो, इसलिए वे नदी के किनारे से ही अपने रास्ते आगे बढ़ जाते है.

ऋषि दुर्वासा के बारे में बखान –

ऋषि दुर्वासा के बारे में बहुत से हिन्दू पुराणों में लिखा हुआ है. जो इस प्रकार है –

1.विष्णु पुराण
2.श्रीमद भागवतम
3.वाल्मीकि रामायण
4.कालिदास
5.शकुंतला
6.स्वामीनारायण सत्संग

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