कुंभकर्ण, रामायण कथा के मुख्य पात्र रावण का छोटा भाई था |इनकी माता कैकसी राक्षस वंश की थी एवं पिता विशर्वा ब्राह्मण कुल के | कुंभकर्ण में माता पिता दोनों के गुण विद्यमान थे | माता कैकसी के मन में सत्ता एवम शक्ति का लोभ था इसलिये वे अपने पुत्रो को पृथ्वी के स्वामी के रूप में देखती थी और वही पिता विशर्वा ब्राहमण थे जिनमे अपार ज्ञान एवम शालीनता थी और वे उसी तरह से अपने पुत्रो को बनता देखना चाहते थे | माता पिता के अलग अलग स्वभाव एवम संस्कारों के कारण ही तीनों पुत्रो रावण, कुंभकर्ण एवम विभीषण में दोनों के गुण निहित थे |
कुंभकर्ण की जीवनी (Kumbhakarna Story in hindi)
रावण के राक्षसों के समान सत्ता का लोभ था, शक्ति का घमंड था लेकिन अपने पिता के समान वो चारों वेदों का ज्ञाता था, उसमे अपार ज्ञान था लेकिन माँ की छाया में रहने के कारण उसकी अच्छाई पर बुराई का प्रभाव ज्यादा उभर कर सामने आया | वही कुंभकर्ण में भी अपार शक्ति थी लेकिन भाई प्रेम के कारण उसने कभी अपने भाई का विरोध नहीं किया | वही विभीषण पर पिता की छाया अधिक थी इसलिये उसने सदैव अपने भाई रावण को सही गलत का भेद समझाया |
बाल्यावस्था से ही तीनों भाइयों ने कई प्रकार से विद्या ग्रहण की | माता की सीख का प्रभाव रावण पर अधिक था एवम विभीषण पर पिता की सिख का लेकिन कुंभकर्ण में दोनों के गुण विद्यमान थे | कुंभकर्ण को खाने का बहुत अधिक शौक था एवम अपने बड़े भाई के प्रति अंधी श्रद्धा भी थी | कुंभकर्ण की काया अत्यंत विशाल थी जिसमे कई हाथियों सा बल था और वो एक साथ कई गाँव के लोगो का भोजन खा सकता था | उससे बात करने के लिये सीढ़ियों के जरिये उस तक पहुँचाना पड़ता था | वो मनुष्यों को अपनी एक हथेली पर बैठा सकता था |इतना बलशाली होने के बाद भी कुंभकर्ण के द्वारा प्राप्त किया वरदान उसके लिए अभिशाप बन गया था |
तीनों भाइयों ने ब्रह्मदेव की कठिन तपस्या करना शुरू किया | कुंभकर्ण के मन में स्वर्ग का आधिपत्य प्राप्त करने की मंशा थी क्यूंकि वो जीवन भर भर पेट भोजन करना चाहता था उसकी इस इच्छा के कारण सभी देव गण चिंतित थे क्यूंकि अगर उसकी इच्छा पूरी होती तो संसार का सम्पूर्ण भोजन खत्म हो जाता और सभी जगह त्राहि मच जाती | इस समस्या के निवारण के लिये सभी ब्रह्मदेव के पास जाते हैं | तब माता सरस्वती इस समस्या का निवारण करती हैं | वो कहती हैं कि जब कुंभकर्ण वरदान मांगेगा तो मैं उसकी जिव्हा पर बैठ जाउंगी और वो बोल नहीं पायेगा |
कुछ समय बाद ब्रह्मदेव कुंभकर्ण की तपस्या से प्रसन्न होकर उसे दर्शन देते हैं और उससे मनचाहा वरदान मांगने को कहते हैं | तब कुंभकर्ण जैसे ही इन्द्रासन बोलने के लिये अपना मुँह खोलता हैं उसके मुँह खोलते ही उसकी जिव्हा पर देवी सरस्वती बैठ जाती हैं और उसके मुँह से इन्द्रासन के स्थान पर निन्द्रासन निकल जाता हैं | ब्रह्मदेव उसे तथास्तु कह देते हैं | जिसके बाद कुंभकर्ण बहुत दुखी होता हैं और ब्रहमदेव के सामने विलाप करने लगता हैं और याचना करता हैं कि ब्रह्मदेव उसकी सहायता करें | तब ब्रहमदेव कहते हैं कि दिया हुआ वरदान वापस नहीं लिया जा सकता लेकिन मैं तुम्हारी भक्ति से बहुत प्रसन्न हूँ इसलिये तुम्हे इतना दे सकता हूँ कि तुम छह माह तक विश्राम करोगे, छह माह के होते ही एक दिन के लिए जागोगे और पुनः छह माह के लिये सो जाओगे | भारी मन से कुंभकर्ण इस बात को स्वीकार कर लेता हैं |
इस प्रकार कुंभकर्ण का वरदान उसके लिये अभिशाप बन जाता हैं | वो छह महीनों तक सोता और एक दिन उठता जिसमे वो भर पेट खाता, सगे संबंधियों से मिलता और पुनः सो जाता | कुंभकर्ण का होना न होना एक बराबर हो चूका था ऐसे में उसे अपने भाई रावण के अधर्मी कार्यों के बारे में कोई जानकारी नहीं थी |
कई सालो बाद जब रावण ने सीता मैया का अपहरण किया था | तब भगवान राम ने लंका पर युद्ध के लिये चढ़ाई की | युद्ध में राम का पक्ष बहुत भारी पड़ रहा था,ऐसे में रावण को अपने बलशाली भाई कुंभकर्ण की याद आई और उसने उसे जगाने का हुक्म दिया | चूँकि कुंभकर्ण को सोये अधिक समय नहीं हुआ था | उसे जगाने के लिये कई कठिन कार्य किये गए | कई हजार नगाड़े बजाये गये | बड़ी मिन्नतो के बाद कुंभकर्ण की निद्रा टूटी और उठते ही उसने बहुत सारा भोजन खाया और फिर बड़े आश्चर्य से पूछा कि क्या उसे सोये हुए छह माह बीत गए ? तब उसे लंका पर छाये संकट के बारे में विस्तार से बताया गया जिसे जानने के बाद कुंभकर्ण को भी इस बात का अहसास हो गया कि उसके भाई रावण ने गलत कार्य किया हैं और उसने अपने भाई रावण को यह समझाया भी लेकिन रावण ने उसकी नहीं मानी और कहा अगर वो चाहे तो वो भी विभीषण की तरह उसे छोड़ कर जा सकता हैं | लेकिन भाई प्रेम के कारण कुंभकर्ण ने युद्ध में जाना स्वीकार किया |
अगले दिन महाकाय कुंभकर्ण युद्धभूमि में पहुँचा और चीटियों की भाति राम की वानर सेना को कुचलने लगा | उसे देख सभी डर गये और पूरी सेना में हाहाकार मच गया | तब विभीषण ने कुंभकर्ण के बारे में सभी को विस्तार से बताया | कुंभकर्ण आगे बढ़ता जा रहा था और सेना खत्म हो होती जा रही थी | तब ही उसकी मुलाकात विभीषण से होती हैं और विभीषण उसे श्री राम की शरण में जाने को कहता हैं लेकिन कुंभकर्ण साफ़ इन्कार कर विभीषण को विश्वासघाती, घर का भेदी कह कर उसका अपमान करता हैं और यह भी कहता हैं कि वो जानता हैं कि वो आज जीवित नहीं बचेगा लेकिन वो कठिन समय में भाई का साथ नहीं छोड़ सकता और वो आगे बढ़ता जाता हैं | सेना की यह दुर्दशा देख भगवान राम ने स्वयम युद्ध भूमि में जाने का निर्णय लिया | और कुंभकर्ण से युद्ध किया | अन्त में कुंभकर्ण वीरगति को प्राप्त हुआ और उसने मरते वक्त भगवान राम को सहह्रदय प्रणाम किया क्यूंकि वो जानता था कि राम भगवान विष्णु का अवतार हैं | उनके हाथों मिली मृत्यु से कुंभकर्ण का उद्धार हो जायेगा |
रामायण महाकाव्य में धर्म अधर्म का बहुत सुंदर चित्रण किया हैं जिसमे भातृप्रेम की जो कहानियाँ हमने सुनी हैं उसका अंश मात्र भी कलयुग में देखने नहीं मिलता | ऐसी ही कई रोचक कहानियाँ पढने के लिये रामायण कहानी पर क्लिक करें |
होम पेज | यहाँ क्लिक करें |