जुबान का दर्द

यह हिंदी कहानी शायद हम सभी को एक थप्पड़ हैं जो आगे बढ़ने की होड़ में पीछे को भूलते चले जा रहे हैं | ज़माना मॉडर्न हो रहा हैं ठीक हैं पर संस्कारों को भूल रहा हैं यह कहाँ तक सही हैं ? इसका मोल वही समझते हैं जिन्होंने हमारी नीव रखी हैं | जिन्होंने संस्कृति को बनाने, जिंदा रखने के लिए कई कुरबानी दी हैं | वही समझते हैं इसके हनन की तकलीफ को | हमें अंदाजा भी नहीं की हम अपनी आदतों के चलते, कितने लोगो की भावनाओं को कुचल देते है  | आइये एक ऐसी ही कहानी आपको बताते हैं जो मेरी बातों को चरितार्थ करती हैं |

जुबान का दर्द 

एक समय जब मुगलों का सामराज्य खत्म होने को था | दिल्ली की सियासत बादल रही थी | तब सभी प्रजा घबरा कर इधर-उधर शरण ले रही थी | खासकर कला क्षेत्र के लोग, सभी शायर जिन्हें पता था कि अब उनकी रोजी रोटी का भी बस अल्लाह ही मालिक हैं |

Juban Ka Dard

उस वक्त दिल्ली में एक मशहूर शायर हुआ करते थे जिनका नाम था “मीर” | एक दिन मीर भविष्य की चिंता में सर झुकायें बैठे थे तभी राहगीर गुजरा उसने रुक कर चिंता का कारण पूछा तब मीर ने अपने और बीवी बच्चों के भविष्य की चिंता व्यक्त की | तब उस राहगीर ने मार्ग सुझाया | उसने कहा – अभी भी हैदराबाद में मुग़ल राज हैं वहाँ आप जैसे महान शायर की जरुरत हैं आपको वही निकल जाना चाहिये | मीर को यह बात ठीक लगी और उन्होंने दिल्ली से रवानगी लेना तय किया | कई बैल गाड़ियाँ सजी जिस पर उनका पूरा परिवार हैदराबाद की तरफ चल पड़ा | सफ़र कई महीनों का था जिसमे कई शहर, कई संस्कृति के दर्शनों के बाद मंजिल मिलना था | आज का वक्त नहीं, जो मिनटों में उड़ान भरकर दूरियाँ मिटा दे |मीर भी उस सफ़र पर निकल पड़े | कई जगहों पर रुकते हुए वे आगे बढ़ रहे थे |

कुछ दिनों के सफ़र के बाद उनकी पोती ने उनसे बिगड़ी हुई उर्दू में कुछ बाते कही जिससे मीर स्तब्ध रह गये | उन्हें अहसास हुआ कई संस्कृति और भाषाओँ के मेल से उनकी पोती की भाषा बिगड़ गई हैं | उर्दू के महान शायर के लिए यह पल अत्यंत दुखदायी था जिन्हें भाषा में प्रचुरता हासिल थी उनकी पौती उसी भाषा का अनादर कर रही थी | उसी क्षण मीर को अहसास हुआ और उन्होंने अपना काफिला रोका और तुरंत दिल्ली की तरफ वापस रुख करने का आदेश दिया | जिस पर उनकी बैगम ने पूछा आपने फैसला भविष्य के लिए लिया था अब आप पीछे क्यूँ जा रहे हैं जिस पर मीर ने जवाब दिया बेगम ! तुम्हे रोजी रोटी की पड़ी हैं और यहाँ जीवन की दौलत लुटे जा रही हैं , लाखो की जुबान बिगड़ रही हैं | दिल्ली में खाने को मिले ना मिले | हम भूखे रह लेंगे | कम से कम लाखो की जुबान तो सलामत रहेगी |

शिक्षा 

आज जमाना ऐसे बदल रहा हैं कि हिंदुस्तान में लोग हिंदी बोलने से शरमाते हैं | फ़ेशन के दौर में हिंदी की जगह हिंग्लिश ने ले ली हैं |हर प्रान्त हर प्रदेश ने भाषा को खेल बना दिया हैं | ऐसे में भाषा के ज्ञानी को जो दुःख पहुँचता हैं उसका अंदाजा भी हम जैसे लोग नहीं लगा पाते | हम पर फ़ेशन की पट्टी ऐसे बंध गई हैं कि हम भाषा के महत्व को नकार बैठे हैं | ऐतिहासिक संस्कृति को झुठला बैठे हैं |मॉडर्न होना गलत नहीं, जरुरी हैं पर अपनी जड़े छोड़ देना गलत हैं | अगर हम ऐसे ही पुराने संस्कारों को भूलते रहेंगे तो हमारी नींव कमज़ोर हो जाएगी और हमारा पतन हो जायेगा | जिस प्रकार एक वृद्ध पेड़ अपनी जड़ो का साथ छोड़ देता हैं वो एक दिन अपने अस्तित्व को ख़त्म कर देता हैं |

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